सबीना के सैंडल टूट गए थे
अम्मी ने रात को सी कर ठीक कर दिया उन्हें,

नन्हे वहाब ने पेट दर्द के काफी बहाने बनाये
पर अब्बू न माने, वो उसकी इस फितरत से वाकिफ थे,

साइकिल पर सवार ज़रघम बेचैन था
अपनी नयी लिखी ग़ज़ल दोस्तों को सुनाने के लिए,

अदीना और सैफ ने वादा किया था
लंच ब्रेक में एक दूसरे से मिलने का,

सोहैल ने अल्लाह से दुआ मांगी थी
पेपर में कैसे न कैसे पास करादे उसे,

फैज़ल सोच रहा था
सहाना से बातों की शुरुआत कैसे करूँ,

ये छोटी-छोटी कहानियाँ अपना रूप ले ही रही थी
हर चीज़ अपनी जगह ठीक ही लग रही थी
पर अनजाने में सब से एक गलती हो बैठी
वह स्कूल चल दिए

इंतकाम हुआ
इंतकाम बहुत खूब हुआ

रह गए वो सैंडल, वो गजलें, वो कागज़, वह ख्वाब, वह सपने
खून में सन के, चीखों में घुम के

कैसे उस मिटटी ने, उन पहाड़ों ने, उन नदियों ने इज़ाजत दी उन काफिरों को
अपने ऊपर कदम रखने की, अपने आप को पार करने की
कैसे उस हवा ने सांस लेने दी उन मौत के सौदागरों को

समय रूक क्योँ नहीं गया
धरती धस क्यों नहीं गयी

लेकिन ना तो समय रुका,
ना ही मौसम की शिद्दतें थहमी
तीन पहर दिन ढलने तक, सिर्फ कफ़न बिछे थे
यह कफ़न, यह लाशें सिर्फ उन बच्चों की नहीं थी
असल मौत तो इंसानियत की थी

पर क्या कर सकता है कोई
ज़िन्दगियों का सौदा होना तो एक बहुत पुराना खेल है
जो दाम सौदागर ज़िन्दगी पर लगा जाये वही सही

दुःख आज सिर्फ इस बात का रहेगा
कि यह कहानियां पूरी न हो पायी
बहुत उत्सुक था मैं इन्हें सुनने के लिए